वो कानून जो बनाता है नेता प्रतिपक्ष को ताकतवर… जानें- राहुल गांधी को 5वीं पंक्ति में बैठाने पर क्यों हो रहा विवाद – rahul gandhi red fort seating row know leader of opposition post history 1977 lop act salary ntc pryd – MASHAHER

ISLAM GAMAL16 August 2024Last Update :
वो कानून जो बनाता है नेता प्रतिपक्ष को ताकतवर… जानें- राहुल गांधी को 5वीं पंक्ति में बैठाने पर क्यों हो रहा विवाद – rahul gandhi red fort seating row know leader of opposition post history 1977 lop act salary ntc pryd – MASHAHER


स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले पर हुए कार्यक्रम में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को पांचवीं पंक्ति में बैठाने पर विवाद हो गया है. कांग्रेस ने केंद्र सरकार पर विपक्ष के नेता को उचित सम्मान नहीं देने का आरोप लगाया है. 

कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हुए लिखा, ‘मोदी जी, अब समय आ गया है कि आप 4 जून के बाद की नई वास्तविकता को समझें. जिस अहंकार के साथ आपने स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को आखिरी पंक्तियों में धकेल दिया, उससे पता चलता है कि आपने कोई सबक नहीं लिया है.’

लाल किले में होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह की सारी जिम्मेदारी रक्षा मंत्रालय की होती है. रक्षा मंत्रालय से जुड़े सूत्रों ने बताया कि आगे की पंक्तियों में ओलंपिक मेडल विजेताओं के बैठने का इंतजाम किया गया था, इसलिए राहुल गांधी को पीछे बैठाया गया. 

प्रोटोकॉल के मुताबिक, विपक्ष के नेता को आगे की पंक्ति में बैठाया जाता है. बताया जा रहा है कि राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को भी पांचवीं पंक्ति में जगह दी गई थी. हालांकि, वो आए नहीं थे.

हालांकि, कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने रक्षा मंत्रालय की इस सफाई को ‘बेवकूफी’ भरा बताया. उन्होंने कहा कि ‘ओलंपिक मेडल विजेताओं को सम्मान बिल्कुल मिलना चाहिए. लेकिन क्या ये सम्मान गृह मंत्री अमित शाह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा नहीं देना चाहते. वो क्यों आगे बैठे थे?’

बहरहाल, ये 10 साल बाद था जब लोकसभा में विपक्ष के नेता स्वतंत्रता दिवस के समारोह में शामिल हुए थे. क्योंकि 2014 और 2019 में कांग्रेस इतनी सीटें नहीं जीत सकी थी कि उसे नेता प्रतिपक्ष का पद दिया जाए. क्योंकि नेता प्रतिपक्ष का पद उसी पार्टी को मिलता है, जिसने लोकसभा में कम से कम 10% सीटें जीती हों यानी 543 में से 54 सीट. लेकिन 2014 में कांग्रेस 44 और 2019 में 52 सीट ही जीत सकी थी. इस बार के चुनाव में कांग्रेस ने 99 सीटें जीती थीं. 

ऐसे आया नेता प्रतिपक्ष का पद

2014 के चुनाव में कांग्रेस ने मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना नेता चुना था. वहीं, 2019 में अधीर रंजन चौधरी को नेता चुना गया था. हालांकि, दोनों ही बार लोकसभा स्पीकर ने ये कहते हुए ये पद देने से इनकार कर दिया था कि कांग्रेस के पास जरूरी 10% सीटें नहीं हैं.

10% वाला नियम 1956 में आया था. तब लोकसभा के स्पीकर जीवी मावलंकर ने निर्देश दिया था कि जिस पार्टी के पास कम से कम 10% सीटें होंगी, उसके किसी सांसद को विपक्ष के नेता के तौर पर मान्यता दी जाएगी.

मावलंकर हमेशा से टू-पार्टी डेमोक्रेसी के समर्थक थे. उन्होंने एक बार कहा था, लोकतंत्र तब तक सही तरीके से आगे नहीं बढ़ सकता, जब तक दो प्रमुख पार्टियों के अलावा और पार्टियां नहीं होंगी. 

हालांकि, आजादी के बाद हुए कई चुनावों में किसी भी विपक्षी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिल सका, क्योंकि वो 10% या उससे ज्यादा सीटें नहीं जीत सकी. 1969 में लोकसभा में पहली बार किसी पार्टी को औपचारिक रूप से विपक्षी पार्टी की मान्यता दी गई. दरअसल, कांग्रेस टूटकर दो हिस्सों में बंट गई थी. कांग्रेस से टूटकर अलग बनी कांग्रेस (ओ) के नेता राम सुभाग सिंह को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा मिला था. राम सुभाग सिंह लोकसभा में विपक्ष के पहले नेता थे.

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क्या 10% सीटें जीतना जरूरी है?

ऐसा माना जाता है कि लोकसभा या राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद तभी दिया जाएगा, जब विपक्षी पार्टी के पास कम से कम 10% सीटें हों. इसी तर्क के साथ 2014 और 2019 में कांग्रेस को ये पद नहीं दिया गया था.

1977 तक नेता प्रतिपक्ष के पद को संवैधानिक मान्यता नहीं थी. ये पद जीवी मावलंकर की ओर से जारी निर्देश पर दिया जाता था. लेकिन 1977 में एक कानून लाया गया, जिसमें पहली बार नेता प्रतिपक्ष के पद की न सिर्फ परिभाषा तय हुई, बल्कि इसने इस पद को संवैधानिक मान्यता भी दी.

‘सैलरी एंड अलाउंसेस ऑफ लीडर ऑफ अपोजिशन एक्ट, 1977’ नाम से आए इस कानून में कहीं भी 10% वाले नियम का जिक्र नहीं है. कानून में लिखा है कि सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के किसी नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा दिया जाएगा. ये कानून लोकसभा और राज्यसभा, दोनों के लिए है. कुल मिलाकर, इस कानून का सीधा-सीधा मतलब यही था कि लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा चेयरमैन के पास सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देने से इनकार करने का अधिकार नहीं है, भले ही उस पार्टी के पास 10% से भी कम सीटें ही क्यों न हों.

इससे पहले 1968 में संसद की एक सब-कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि सबसे बड़ी मान्यता प्राप्त विपक्षी पार्टी के नेता को नेता प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए. 1977 का कानून इसी सिफारिश के आधार पर लाया गया था.

इतना ही नहीं, 10% वाले नियम का महत्व तब और कम हो गया जब 1985 में जनप्रतिनिधि कानून में संशोधन किया गया. इसके बाद किसी राजनीतिक पार्टी को मान्यता देने का अधिकार चुनाव आयोग को दे दिया गया. 

पेचीदगियां ही पेचीदगियां

2014 में तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सलाह दी थी कि सदन के किसी सदस्य को विपक्ष के नेता के रूप में मान्यता देने का मुद्दा 1977 के कानून के दायरे से बाहर है. इस आधार पर उस समय की लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन ने कांग्रेस को ये पद नहीं दिया था.

हालांकि, इससे पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 116 सीटें जीतकर सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बनी थी. लेकिन तत्कालीन लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने बीजेपी सांसद सुषमा स्वराज को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देते समय कहा था कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार 1977 के कानून से मिला है. 

इतना ही नहीं, 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद स्पीकर राम निवास गोयल ने बीजेपी नेता विजेंद्र गुप्ता को विपक्ष के नेता का दर्जा दिया था. जबकि उस चुनाव में बीजेपी विधानसभा की 70 में से सिर्फ 3 सीट ही जीत पाई थी.

कितना ताकतवर होता है नेता प्रतिपक्ष?

नेता प्रतिपक्ष का पद कैबिनेट मंत्री के बराबर होता है. इस पद पर जो भी व्यक्ति होता है, वो संसद में सिर्फ विपक्ष की आवाज ही नहीं होता, बल्कि उसके कई विशेषाधिकार और शक्तियां भी होती हैं.

विपक्ष का नेता पब्लिक अकाउंट, पब्लिक अंडरटेकिंग और एस्टिमेट पर बनी कमेटियों का हिस्सा होता है. साथ ही संयुक्त संसदीय समितियों और चयन समितियों में भी अहम भूमिका होती है. ये चयन समितियां सीबीआई, ईडी, केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) जैसी एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्तियां करती हैं.

विपक्ष के नेता को भी वही सैलरी, भत्ते और सुविधाएं मिलती हैं, जो संसद के बाकी सदस्यों को मिलती है. सांसदों को मिलने वाली सैलरी और भत्ते 1954 के कानून के तहत तय होते हैं. आखिरी बार इस कानून में 2022 में संशोधन हुआ था.

इसके मुताबिक, लोकसभा के हर सदस्य को हर महीने 1 लाख रुपये की बेसिक सैलरी मिलती है. इसके साथ ही 70 हजार रुपये निर्वाचन भत्ता और 60 हजार रुपये ऑफिस खर्च के लिए अलग से मिलते हैं. इसके अलावा जब संसद का सत्र चलता है तो दो हजार रुपये का डेली अलाउंस भी मिलता है.


Source Agencies

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